Wednesday, October 19, 2011

दीवाली का इतिहास / कथा दीपावली की / दीवाली के पांच दिन / दीवाली से जुड़े पर्व

हिन्दुओं के सबसे बड़े पर्वों में से एक है - पांच-दिवसीय दीवाली अथवा दीपावली का पर्व, जिसका इतिहास दंतकथाओं से भरपूर है, तथा अधिकतर कथाएं हिन्दू पुराणों में मिल जाती हैं... लगभग प्रत्येक कथा का सार बुराई पर अच्छाई की जीत ही है, परन्तु कथाओं में अन्तर भी मिलते हैं... 

दीवाली पर्व का पहला दिन - धनतेरस

कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी (13वीं तिथि) को दीवाली पर्व का पहला दिन मनाया जाता है, जिसे धनतेरस अथवा धन्वन्तरि त्रयोदशी कहा जाता है... दीपोत्सव इसी दिन से शुरू हो जाता है...

हमारे देश में इस दिन से जुड़ी प्रचलित कथा के अनुसार राजा हिमा का 16-वर्षीय पुत्र अपनी शादी की चौथी रात को ही सांप के काटने के कारण लगभग मृत्युशैया पर पहुंच गया, परन्तु उसकी नवविवाहिता पत्नी ने अपने सभी आभूषण तथा सोने के सिक्के निकाले, अपने पति के शरीर के इर्द-गिर्द फैलाए, ढेरों दिये जलाकर चारों ओर रख दिए, तथा गीत गाने लगी... जिस समय मृत्यु के देवता यमराज राजा हिमा के पुत्र के प्राण हरने पहुंचे, दियों की गहनों से आती चमकदार रोशनी से उनकी आंखें चुंधिया गईं, तथा उसके तुरन्त बाद उनके कानों में राजकुमार की पत्नी की कर्णप्रिय आवाज़ सुनाई दी, और वह मंत्रमुग्ध होकर सारी रात गीत सुनते रहे... सवेरा होते ही राजकुमार की मृत्यु का समय टल गया, और यमराज को खाली हाथ मृत्युलोक लौटना पड़ा... इस तरह राजकुमारी अपने पति को मृत्यु के मुख से वापस लाने में सफल रही... उसी समय से धनतेरस का पर्व 'यमोदीपदान' के रूप में भी मनाया जाता है, और पूरी रात घर के बाहर दीप जलाकर रखते हैं, ताकि यमराज को घर में प्रवेश से रोका जा सके...

धनतेरस से जुड़ी एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान इसी दिन देवताओं के वैद्य माने जाने वाले धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर सुरों-असुरों के समक्ष उपस्थित हुए थे...

धनतेरस का दिन धनागमन की दृष्टि से शुभ माना जाता है, तथा पुरानी मान्यताओं के अनुसार धनतेरस पर सोने-चांदी की खरीदारी लाभदायक होती है, और माना जाता है कि नया धन घर में धनागमन के प्रवेश का प्रतीक है... दो दिन बाद दीवाली की रात में लक्ष्मी पूजन के दौरान भी धनतेरस पर खरीदी गई वस्तुओं की पूजा की जाती है... धनतेरस के अवसर पर बर्तनों, वाहनों, तथा घरेलू सामान की भी खरीदारी की जाती है... रात के समय धन्वन्तरि भगवान की पूजा करते हैं, और दिया जलाकर घर के दरवाजे पर रखते हैं... उससे पूर्व संध्या के समय नदी, तालाब के किनारे, अथवा कुओं-बावड़ियों की जगत पर, तथा गोशालाओं-मंदिरों में भी दिये जलाए जाते हैं... 

दीवाली पर्व का दूसरा दिन - नर्क चतुर्दशी

कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी (14वीं तिथि) को दीवाली पर्व का दूसरा दिन मनाया जाता है, जिसे नर्क चतुर्दशी अथवा नरक चौदस कहा जाता है... इस दिन को आम बोलचाल में छोटी दीवाली भी कहते हैं... इस दिन भी कुछ स्थानों पर पटाखे जलाए जाते हैं, तथा दीप प्रज्वलित किए जाते हैं... नरक चौदस पर सूर्योदय से पहले उठकर तेल मालिश के बाद स्नान को महत्वपूर्ण माना जाता है... यह भी माना जाता है कि दीवाली के दौरान तीन दिन तक (धनतेरस, नर्क चतुर्दशी तथा दीपावली) दीपक जलाकर विधिपूर्वक पूजन करने से मृत्यु के बाद यम यातना नहीं भोगनी पड़ती, तथा पूजन करने वाला सभी पापों से मुक्त होकर स्वर्ग को प्राप्त होता है... इस त्योहार को रूप चतुर्दशी भी कहा जाता है, और इसी दिन रामभक्त हनुमान का जन्म हुआ था...

इस दिन से जुड़ी प्रचलित कथा के अनुसार प्रागज्योतिषपुर में नरकासुर नामक राजा हुआ करता था, जिसने युद्ध के दौरान देवराज इंद्र को परास्त करने के बाद देवमाता अदिति के कर्णफूल छीन लिए, तथा 16,100 देवपुत्रियों तथा मुनिपुत्रियों को रनिवास में कैद करके रख लिया... देवमाता अदिति देवलोक की शासक होने के साथ-साथ भगवान कृष्ण की पत्नी सत्यभामा की संबंधी थीं, जिन्हें इस घटना की सूचना मिलने पर बहुत क्रोध आया, तथा उन्होंने भगवान कृष्ण से नरकासुर को खत्म करने की अनुमति मांगी... प्रचलित कथा के अनुसार नरकासुर की मृत्यु एक श्राप के कारण किसी स्त्री के हाथों ही हो सकती थी, सो, कृष्ण ने सारथि का स्थान ग्रहण कर सत्यभामा को नरकासुर से युद्ध का अवसर प्रदान किया, और अंततः सत्यभामा ने नरकासुर को पराजित कर मार डाला... जिन देवपुत्रियों तथा मुनिपुत्रियों को नरकासुर की कैद से मुक्ति दिलाई गई, भगवान कृष्ण ने उन सभी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर उनका खोया सम्मान उन्हें लौटाया, तथा देवमाता अदिति के कर्णफूल भी उन्हें पुनः अर्पित कर दिए गए... विजय के प्रतीक चिह्न के रूप में भगवान कृष्ण ने नरकासुर के रक्त से अपने मस्तक पर तिलक किया, तथा नर्क चतुर्दशी की सुबह वह घर लौट आए, जहां उनकी पत्नियों ने उन्हें सुगंधित जल से स्नान करवाया तथा इत्र का छिड़काव किया, ताकि नरकासुर के शरीर की दुर्गन्ध भगवान के शरीर से चली जाए... ऐसी मान्यता है कि इसी कारण नर्क चतुर्दशी के दिन सायंकाल में स्नान की परम्परा आरम्भ हुई...

नर्क चतुर्दशी पर संध्या के समय स्नान कर कुलदेवता तथा पुरखों की पूजा की जाती है, तथा उन्हें नैवेद्य चढ़ाकर दीप प्रज्वलित किए जाते हैं... माना जाता है कि नर्क चतुर्दशी की पूजा से घर-परिवार से नर्क अर्थात् दु:ख-विपदाओं को बाहर निकाल दिया जाता है... इस दिन घर के आंगन, बरामदे और द्वार को रंगोली से सजाया जाता है... 

दीवाली पर्व का तीसरा दिन - दीवाली

इस पर्व का मुख्य दिन है तीसरा दिन, जिसे रोशनी के पर्व दीवाली अथवा दीपावली के रूप में कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है... दीपावली दो शब्दों 'दीप' तथा 'अवलि' की सन्धि करने से बना है, जिसमें 'दीप' का अर्थ 'दिया' तथा 'अवलि' का अर्थ 'पंक्ति' है, अर्थात दीपावली का अर्थ है - दीपों की पंक्ति...

हमारे देश में हिन्दुओं के सबसे बड़े पर्व दीपावली को लेकर अनेक पौराणिक कथाएं कही जाती हैं... सर्वाधिक प्रचलित कथा के अनुसार देश के उत्तरी भागों में दीवाली का पर्व भगवान श्री रामचंद्र द्वारा राक्षसराज रावण के वध के उपरान्त अयोध्या लौटने की खुशी में मनाया जाता है... महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित धर्मग्रंथ रामायण में उल्लिखित कथा के अनुसार अयोध्या के राजकुमार राम अपनी विमाता कैकेयी की इच्छा तथा पिता दशरथ की आज्ञानुसार 14 वर्ष का वनवास काटकर तथा लंकानरेश रावण का वध कर इसी दिन पत्नी सीता, अनुज लक्ष्मण तथा भक्त हनुमान के साथ अयोध्या लौटे थे, तथा उनके स्वागत में पूरी नगरी को दीपों से सजाया गया था... उसी समय से दीवाली पर दिये जलाकर, पटाखे चलाकर, तथा मिठाइयां बांटकर इस शुभ दिन को मनाने की परम्परा शुरू हुई...

एक अन्य मान्यता के अनुसार दीपावली के दिन ही माता लक्ष्मी दूध के सागर, जिसे 'केसरसागर' अथवा 'क्षीरसागर' भी कहा जाता है, से उत्पन्न हुई थीं... उत्पत्ति के उपरान्त मां लक्ष्मी ने सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को सुख-समृद्धि का वरदान दिया, इसीलिए दीपावली पर माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है, तथा मान्यता है कि सम्पूर्ण श्रद्धा से पूजा करने से लक्ष्मी जी भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें धन-सम्पदा तथा वैभव से परिपूर्ण करती हैं, तथा मनवांछित फल प्रदान करती हैं...

इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में दीपावली को फसलों की कटाई के पर्व के रूप में भी मनाया जाता है... आमतौर पर इस समय तक अनाज और अन्य फसलों की कटाई का काम पूरा होने के बाद किसानों के हाथ में धन भी आ चुका होता है, इसलिए उस धन को लक्ष्मी माता के चरणों में अर्पित कर त्योहार की खुशियां मनाई जाती हैं...

दीपावली पर पूजन के लिए आवास में किसी भी प्रमुख स्थान पर (घर का मध्य नहीं होना चाहिए) किसी भी धुले हुए स्वच्छ स्थान पर उत्तर की ओर मुख करके अपने आराध्य की मूर्ति स्थापित करें... घर में ही हाथ से बने भोजन का भोग आराध्य को अवश्य लगाना चाहिए... घर के दक्षिण में दीप प्रज्वलन भी आवश्यक है... दीप प्रज्वलन के समय गन्ने, खील-खिलौने आदि का भोग भी लगाएं... दक्षिण में दीप प्रज्वलन पांचों दिन करना चाहिए... दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी पूजन अवश्य किया जाता है... कहा जाता है कि अमावस्या की रात में देवी लक्ष्मी अपने वाहन उल्लू पर सवार होकर निकलती हैं, तथा रोशनी से सराबोर भरों में प्रवेश करती हैं... 

दीवाली पर्व का चौथा दिन - गोवर्द्धन पूजा

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, अर्थात कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पहली तिथि, अर्थात दीवाली से अगले दिन गोवर्द्धन पूजा या अन्नकूट पूजा मनाया जाता है... श्रद्धालु इस दिन गाय के गोबर से गोवर्द्धन पर्वत के सम्मुख भगवान श्रीकृष्ण, गायों व बालगोपालों की आकृतियां बनाकर उनकी पूजा करते हैं... प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार गोकुलवासी वर्षा के देवता कहे जाने वाले इंद्र को प्रसन्न करने के लिए प्रत्येक वर्ष उनकी पूजा करते थे, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ऐसा करने से रोककर गोवर्द्धन पर्वत की पूजा करने के लिए कहा... इस पर इंद्र ने क्रोधवश गोकुल पर भारी मूसलाधार बारिश करवा दी, जिससे ब्रजवासियों को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ की कनिष्ठा (सबसे छोटी अंगुली) पर सात दिन तक गोवर्द्धन पर्वत को उठाए रखा, तथा सभी ग्रामीणों, गोपी-गोपिकाओं, ग्वाल-बालों व पशु-पक्षियों की रक्षा की... सातवें दिन भगवान ने पर्वत को नीचे रखा और सभी गोकुलवासियों को प्रतिवर्ष गोवर्द्धन पूजा कर अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी... इसके बाद से ही श्रीकृष्ण भगवान गोवर्द्धनधारी के नाम से भी प्रसिद्ध हुए और इंद्र ने भी कृष्ण के ईश्वरत्व को स्वीकार कर लिया...

इस दिन भगवान की पूजा के उपरान्त विविध खाद्य सामग्रियों से उन्हें भोग लगाया जाता है। मथुरा और नाथद्वारा के मंदिरों में भगवान का दूध आदि से अभिषेक कर नाना प्रकार के आभूषणों से सजाया भी जाता है... पारम्परिक पूजा के उपरान्त गोवर्द्धन पर्वत के आकार में मिठाइयां बनाकर भगवान को भोग लगाया जाता है, और बाद में उन्हें ही प्रसाद रूप में बांटा भी जाता है... आमतौर पर घरों में ही गाय के पवित्र कहे जाने वाले गोबर से लीपकर ही गोवर्द्धन पर्वत समेत श्रीकृष्ण, गायों व अन्य आकृतियों को बनाकर उनकी पूजा की जाती है... 

दीवाली पर्व का पांचवां दिन - भैयादूज / चित्रगुप्त पूजा

दीपावली के पांच-दिवसीय महापर्व का अंतिम पड़ाव होता है - भैयादूज... यह भाई-बहन के अगाध प्रेम का प्रतीक है, तथा इस दिन बहनें अपने भाइयों को भोजन कराकर तिलक करती हैं तथा उनके कल्याण व दीर्घायु की कामना करती हैं, और भाई भी बहनों को आशीर्वाद देकर भेंट दिया करते हैं... यह भी कहा जाता है कि दीवाली का महापर्व भैयादूज के बिना सम्पूर्ण नहीं होता... हिन्दीभाषी उत्तर भारत में इस पर्व को भैयादूज अथवा भाईदूज के नाम से जाना जाता है, परन्तु महाराष्ट्र में इसे 'भाव-भीज', पश्चिम बंगाल में 'भाई-फोटा' और नेपाल में 'भाई-टीका' कहकर पुकारा जाता है...प्रचलित कथा के अनुसार यमराज इस दिन अपनी बहन यमुना के घर गए थे, जिसने यमराज की पूजा कर उनके मंगल, आनन्द तथा समृद्धि की कामना की, सो, तभी से सभी बहनें इसी दिन अपने भाइयों की रक्षा के लिए पूजा करती आई हैं... इस त्योहार को इसी कथा के कारण 'यमद्वितीया' के नाम से भी पुकारा जाता है...

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार नरकासुर को मारने के बाद भगवान कृष्ण इसी दिन अपनी बहन सुभद्रा के पास गए थे, जिसने कृष्ण का पारम्परिक स्वागत करते हुए उनकी पूजा की थी...

एक प्रचलित कथा यह भी है कि इसी दिन भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया था, जिससे उनके भाई राजा नंदीवर्द्धन बहुत व्यथित हुए... तब उनकी बहन सुदर्शना ने उन्हें काफी दिलासा दी, तथा उनकी सुख-शांति तथा रक्षा के लिए पूजा-अर्चना की... तभी से सभी महिलाएं भैयादूज मनाकर अपने भाइयों की रक्षा की प्रार्थना करती आई हैं... विधि के अनुसार बहनें इस दिन अपने भाई की दीर्घायु की कामना करते हुए उपवास रखती हैं, तथा सुबह स्नान के उपरान्त पूजा की थाली सजाकर भाई का तिलक करती हैं तथा बुरी नज़र से बचाने के लिए उनकी आरती उतारती हैं... इसके एवज में भाई भी बहनों को उपहार दिया करते हैं...

भैयादूज के दिन ही जीवों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखने वाले भगवान चित्रगुप्त की पूजा-अर्चना भी की जाती है, जिसे 'दवात पूजा' के नाम से भी जाना जाता है, और कलम-दवात की पूजा की जाती है... हिन्दू मान्यता के अनुसार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने अपने शरीर के विभिन्न अंगों से 17 पुत्रों की रचना की तथी, जिनमें चित्रगुप्त अंतिम थे... चित्रगुप्त की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के पेट से हुई मानी जाती है, सो, यही कारण है कि ब्रह्मा के अन्य पुत्रों से इतर चित्रगुप्त का जन्म पुरुष काया के साथ हुआ, और इसी कायाधारी होने के कारण ही इन्हें कायस्थ नाम से भी जाना जाता है...

हिन्दू धर्म में कहा जाता है कि जीवन सतत गतिशील चक्र है, जो जन्म-दर-जन्म चलता रहता है, जब तक प्राणी मोक्ष को प्राप्त नहीं हो जाता... धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान चित्रगुप्त जीवों के धर्म-अधर्म और अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं, तथा उन्हीं के अनुसार प्राणी को फल भोगना पड़ता है... भगवान चित्रगुप्त ही किसी भी प्राणी के कर्मों तथा पाप-पुण्य का ब्योरा भगवान को देते हैं और फिर उसी के आधार पर जीव के अगले जन्म, दशा और योनि का निर्धारण किया जाता है, अथवा मोक्ष की प्राप्ति होती है... 

दीवाली पर्व से जुड़ी एक अन्य कथा...

दीपावली के पर्व से ही एक कथा महाप्रतापी राजा बलि की भी जुड़ी हुई है, जो बेहद महत्वाकांक्षी भी थे, जिसके कारण कुछ देवताओं ने डरकर भगवान विष्णु को राजा बलि की शक्तियां सीमित करने तथा उनकी गर्व चूर करने का आग्रह किया... तब भगवान विष्णु ने बौने ब्राह्मण का अवतार ग्रहण किया, जिसे वामनावतार कहा जाता है, और बलि के पास पहुंचकर उनसे तीन पग भूमि दान करने के लिए कहा... बलि ने हंसकर हां कहा, तो विष्णु अपने वास्तविक स्वरूप में आए, और पहले पग में धरती, और दूसरे पग में आकाश को माप लिया... तब बलि का गर्व चूर हुआ, तथा तीसरे पग को उसने अपने सिर पर धरवाया, और उसके बाद स्वयं पाताल जाकर बस गया...

3 comments:

  1. Kabhi kisi zamane mein padhi thi ye kahaniyaan....yaad taaza ho gayi. Thank you

    ReplyDelete
  2. kabhi kisi zamane mein padhi thi ye kahaniyan ....achchha laga phir se padh kar ..yadein taaza ho gayi..thnak you

    ReplyDelete
  3. hmmm... Behna, isiliye dobaara likhi thi yeh kahaaniyaan... :-)

    ReplyDelete

शायद आप यह भी पसंद करें...

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...